Saturday, March 21, 2015

लहू, जब खारा पानी बन गया !!

कैसा लगे आपको, अगर कोई आपसे वादा करे बस यूँही दिल रखने के लिए नहीं...बल्कि बेजोड़ तोड़ उसे निभाने के लिए और आप भी उसे सच मान जाएँ। उतना ही सच जितना कि रोज़ पूरब से उग कर पश्चिम तक जाने का सूरज का सच है। पहाड़ों के दामन से फिसल कर समुद्र में खो जाने का नदिया का सच है। उतना ही भरोसा जितना एक नन्हे बच्चे को गोद से उछाल दिए जाने पर होता है कि उछालने वाला खेल रहा है उससे, वो उसे गिराएगा नहीं। वो एक पल को डरता ज़रूर है लेकिन यकीन भी रखता है कि उसके साथ कोई हादसा नहीं होने वाला और वो खिलखिला पड़ता है और गोद में लौटते ही एक सुकून भरी मुस्की दे देता है। 
तो ऐसे ही एक सुकून की, एक सच की, एक भरोसे की, एक वादे की शिकार मैं भी हो गयी। अब ऐसा मत सोचिये कि मैं अकेली हूँ ऐसे हादसों की शिकार। आप भी हुए ही होंगे...क्यों नहीं हुए क्या...अगर नहीं हुए तो आल द बेस्ट क्योंकि ये जो दुनिया में लोग है ना वो आपको बिना झटका दिए, कहाँ मानने वाले हैं। सो तैयार रहिये। खैर! हाँ तो मैं कह रही थी कि मैं शिकार हो गयी या यूँ कहें जान-बूझ के बनाया गया। पूरे सिनेरियो को सोचते हुए तो यही लगता है कि शिकार या बेवकूफ बनाया गया। या ये भी हो सकता है कि मैं खुद ही बेवकूफ होऊं। नहीं तो आज कल 'एक हाथ से ले एक हाथ से दे' वाले व्यापारी दुनिया में मैंने कैसे किसी पर इतना यकीन कर लिया कि वो मेरा भरोसा कभी नहीं तोड़ेगी। दोस्ती हमेशा दिल से निभाएगी। लेकिन आज कल दिल का काम खून पंप करने के अलावा कुछ भी नहीं है और कभी तो वो भी नहीं क्योंकि अब जिस्म में लहू नहीं खारा पानी बहता है...छोटी सोच का मटमैला खारा पानी। 
कहते हैं ना, दोस्त का दुश्मन...दोस्त। उसने भी दुनियादारी की किसी किताब में से पढ़ लिया होगा। अब देखो...अभी भी मैं उसी की साइड ले रही हूँ। अब ले रही हूँ तो ले रही हूँ...क्या करूँ, इसी फितरत की तो शिकार हूँ। एक बार दोस्त मान लेने पर जब तक जान सूख कर हलक में ना आ जाये...तोड़ेंगे थोड़े ही दोस्ती। लेकिन हाँ हाँ हाँ...पीठ में छुरा घोंपाने के बाद नहीं निभा सकती। ना बिलकुल भी ना...ये मेरे उसूल के खिलाफ है। उसूल...हा हा हा...कितना खतरनाक लगता है ना ये शब्द। इसलिए कभी कभी, एक्सट्रीम कंडीशन में ही इस्तेमाल करती हूँ, जब दिल हड़ताल कर देता है इस्तेमाल होने से। 
इस्तेमाल!! तो क्या इस्तेमाल ही तो किया उसने। उसने ही तो कहा था, 'जब तक तेरी मेरी दोस्त रहेगी, ये वादा है मेरा कि उस तीसरी का कोई चांस नहीं। मैं अपनी ज़िन्दगी यानि अपनी किताबों में उसका कोई ज़िक्र नहीं करुँगी।' ये बात उसने मेरी दोस्ती के फक्र में, बिना किसी दबाव के कही थी। 
लेकिन आज ये क्या हुआ, उसकी किताब मेरे हाथ में है और मेरा हर राज़ उसकी किताब में। क्या इसलिए बनाया था मैंने उसे अपना राज़दार कि वो मेरी सारी बातें, मेरी दुनिया से शिकायतें, मेरी ज़िन्दगी के लुके-छुपे लम्हे...सब कुछ...बस कुछ चंद सिक्कों और ज़रा सी शौहरत के लिए सरेआम कर दे। जो बात वो जानती थी, मैं जानती थी, अब सारी दुनिया जानेगी। अब इसके बाद सोचती हूँ...दोस्ती भी कैसे तोड़ूँ, वो इस बात को भी सरेआम कर शोहरत कमाएगी। उसने दुनियादारी के चैप्टर अच्छे से पढ़ें हैं। रिश्तों का व्यापार करना जानती है और मैं फिर 'सामान' की तरह खरीदी बेची जाऊँगी। इसलिए अब थोड़ी समझदारी दिखानी पड़ेगी। अनाड़ी हो के काम चलने वाला नहीं। मैं निभाऊंगी दोस्ती...दिल से नहीं, दिमाग से 

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