बचपन में,
इम्तिहानों में अक्सर एक सवाल आता था "रिक्त स्थान भरिये", माँ हमे इम्तिहान से पहले सारे जवाब रटाती और हम उसमे याद किये गए जवाबों
को भर देते थे। सवाल आराम से हल हो जाता था। लेकिन जीवन मे किसी के चले जाने से हो
गए रिक्त स्थान को भरने का जवाब तुम क्यों नहीं सिखला के गयी ? माँ, तुमने क्यों नहीं बतलाया कि, रिक्तता इतनी खलती है कि रातों को नींद आना मुहाल हो जाता है। आँख बंद
करते ही सब कुछ वापस से फिल्म की रील की तरह दौड़ने लगता है। जाने कौन उन सारी बीती
बातों को रिवाइंड कर देता है। तुम्हारे बिना जीने की जद्दोजहद मे एक महीना होने को आ रहा है लेकिन अब भी आँखें बंद करती हूँ तो कानों
मे भाभी की वो चीत्कार, "दीदीsss...मम्मी नहीं रहीं...दीदी", तीर की तरह मन की तहों में जाकर धंस जाता है। कितनी कोशिश
की इसको निकालने
की, उस दर्द से पीछा छुड़ाने की लेकिन सब नाकाम
रही । फिलहाल
तो मुझे कोई तरीका नहीं सूझ रहा। मन के किनारों से दर्द रिस रिस कर आँखों के
पोरों पर
आकर अटक जा रहा है। कोई पुरानी बात याद आते ही वो गालों पर टप्प से ढुलक जा रहा
है। कितनी कोशिश कर रही हूँ कि भूल जाऊँ...मुझे कोई चोट नही लगी, कोई दर्द नही हो रहा...तुम्हारी तरह मुस्कुराती रहूँ
...लेकिन
माँ..तुम जैसा साहस मुझमे कहाँ?
मुझे याद है, जब भी मैं उदास होती, जाने कैसे तुम्हे पता चल जाता...इतनी हज़ार किलोमीटर दूर रहती फिर भी तुम्हे मेरी उदासी का एहसास हो जाता और तुम फ़ोन कर लेती। कहती आज तुझे सपने में देखा...झूठी-सच्ची कहानी गढ़ती और जानने की कोशिश करती कि तुम्हारी बच्ची क्यों उदास है? मैं भी तुम्हारी तरकीबें जान गयी थी...छुपा ले जाती थी अपना दर्द। मगर आज जब सोते हुए, एक उधड़े ऊन के गोले सा कोई सपना मेरी संवेदनाओं को तार तार कर रहा था और मैं रोते बिलखते उठ बैठी और ज्यों ही फोन उठाकर तुम्हारा नंबर डायल किया, मन सन्न रह गया इस एहसास से कि, "दिस पर्सन डस नॉट एक्सज़िस्ट...आप जिस नंबर पर कॉल कर रहे हैं वो अब इस दुनिया में नहीं हैं।" और मैं...मैं केवल मोबाइल हाथ में लिए घंटों ज़ार-ज़ार हो रोती रही, बिलखती रही। तुम्हे ज़ोर ज़ोर से पुकारती रह गयी। इतने दिनों से हर पल अपने को झूठलाती रही कि तुम कहीं नहीं गयी...तुम मेरे पास हो। कितने सांत्वनाओं से अपने को छुपा लिया था कि मैं तो तुम्हारा ही हिस्सा हूँ। तुमसे ही बनी हूँ। तुम्हारे खून पानी हवा का क़तरा ही तो मेरे नस नस में दौड़ रहा है। जो तुम हो वही मैं हूँ। मगर सभी सांत्वनाएं खोखली दीवार की तरह ढह गयी थी। मैं समझ चुकी थी कि अब मैं तुम्हे कभी देख नहीं पाऊँगी, तुम्हे छू नहीं पाऊँगी और जीवन में तुम्हारी आवाज़ कभी भी नहीं सुन पाऊँगी। वो तुम्हारा मुझे...'रेनू...ए बच्ची' पुकारना, सुनने के लिए मेरे कान हमेशा के लिए तरस जायेंगे। बचेंगे तो केवल आंसुओं के नरम क़तरे और यादों के खट्टे-मीठे लम्हे। अब इन्ही के भरोसे ज़िन्दगी कटेगी। अब तुमसे दर्द छुपाने की सारी तरकीबें फेल हो गयी हैं। मुझसे तुम्हारे जाने का दर्द, तुम्हारे ना होने की बेचैनी छुपाये नहीं छुप रही। मन धुआँ धुआँ हो सुलग रहा है और आँखें दिसंबर की बरसात हो गयी है...आत्मा से प्राण तक, धड़कन से साँस तक...सब कुछ भीग गया है। यादों का सैलाब मन के किनारे पर ऐसे टकरा रहा है, लगता है जैसे एक रोज़ साँसों का बाँध तोड़ के ही दम लेगा।
मुझे याद है, जब भी मैं उदास होती, जाने कैसे तुम्हे पता चल जाता...इतनी हज़ार किलोमीटर दूर रहती फिर भी तुम्हे मेरी उदासी का एहसास हो जाता और तुम फ़ोन कर लेती। कहती आज तुझे सपने में देखा...झूठी-सच्ची कहानी गढ़ती और जानने की कोशिश करती कि तुम्हारी बच्ची क्यों उदास है? मैं भी तुम्हारी तरकीबें जान गयी थी...छुपा ले जाती थी अपना दर्द। मगर आज जब सोते हुए, एक उधड़े ऊन के गोले सा कोई सपना मेरी संवेदनाओं को तार तार कर रहा था और मैं रोते बिलखते उठ बैठी और ज्यों ही फोन उठाकर तुम्हारा नंबर डायल किया, मन सन्न रह गया इस एहसास से कि, "दिस पर्सन डस नॉट एक्सज़िस्ट...आप जिस नंबर पर कॉल कर रहे हैं वो अब इस दुनिया में नहीं हैं।" और मैं...मैं केवल मोबाइल हाथ में लिए घंटों ज़ार-ज़ार हो रोती रही, बिलखती रही। तुम्हे ज़ोर ज़ोर से पुकारती रह गयी। इतने दिनों से हर पल अपने को झूठलाती रही कि तुम कहीं नहीं गयी...तुम मेरे पास हो। कितने सांत्वनाओं से अपने को छुपा लिया था कि मैं तो तुम्हारा ही हिस्सा हूँ। तुमसे ही बनी हूँ। तुम्हारे खून पानी हवा का क़तरा ही तो मेरे नस नस में दौड़ रहा है। जो तुम हो वही मैं हूँ। मगर सभी सांत्वनाएं खोखली दीवार की तरह ढह गयी थी। मैं समझ चुकी थी कि अब मैं तुम्हे कभी देख नहीं पाऊँगी, तुम्हे छू नहीं पाऊँगी और जीवन में तुम्हारी आवाज़ कभी भी नहीं सुन पाऊँगी। वो तुम्हारा मुझे...'रेनू...ए बच्ची' पुकारना, सुनने के लिए मेरे कान हमेशा के लिए तरस जायेंगे। बचेंगे तो केवल आंसुओं के नरम क़तरे और यादों के खट्टे-मीठे लम्हे। अब इन्ही के भरोसे ज़िन्दगी कटेगी। अब तुमसे दर्द छुपाने की सारी तरकीबें फेल हो गयी हैं। मुझसे तुम्हारे जाने का दर्द, तुम्हारे ना होने की बेचैनी छुपाये नहीं छुप रही। मन धुआँ धुआँ हो सुलग रहा है और आँखें दिसंबर की बरसात हो गयी है...आत्मा से प्राण तक, धड़कन से साँस तक...सब कुछ भीग गया है। यादों का सैलाब मन के किनारे पर ऐसे टकरा रहा है, लगता है जैसे एक रोज़ साँसों का बाँध तोड़ के ही दम लेगा।
लेकिन, जानती हूँ ऐसा होगा नहीं। तुम होने नहीं दोगी क्योंकि तुम
बहुत
चाहती थी मुझे। तुम जानती थी, गर मुझे पता चला कि तुम मुझे छोड़ के जाने वाली हो तो मैं
तुम्हे जाने नहीं दूँगी। कोई ना कोई बहाना बना के रोक लूँगी इसलिए चुप से, मुझसे बिना कुछ बोले चली गयी। यहाँ तक कि पिछले महीने भी जब तुमसे
मिलने आई तब भी तुम मुझे यही एहसास दिला रही थी कि तुम बिलकुल ठीक हो। अब अपने
सहारे चल-फिर पा रही हो। मगर मैं जान गयी थी कि इतने सालों से तुममे जान फूंकती
तुम्हारी हिम्मत अब जवाब दे रही है। पापा के जाने के बाद जिस हौसले से तुमने हम
चारों को संभाला था...उसी हौसले के पंख अब तीतर-बितर हो फड़फड़ा रहे थे। कितनी कोशिश
की थी उसको उम्मीदों का मलहम लगा जिलाने की मगर हर कोशिश अधूरी रह गयी। जैसे अभी
हर पल हर लम्हा ख़यालों पर इख़्तियार किये हुए हो...काश! उस वक़्त ख़यालों पर सवार
रहती...काश!! तुम मुझसे मीलों दूर ना होती। काश!!! तुम्हारी बेचैनी, परेशानी, कसमसाहट को मैं पहले समझ जाती
तो तुम्हें अपने से जुदा नहीं होने देती। ये काश, अगर-मगर, शायद जैसे शब्द ज़िन्दगी की
डिक्शनरी से डिलीट क्यों नही हो जाते। जो चाहते हो पाता।
कभी कभी ईश्वर की नाइंसाफी पर भी कोफ़्त हो उठती है। उस ने लड़कियों
को चिड़ियों की तरह मन तो दे दिए हैं पर उनकी तरह तन देना भूल गया। उसको हमें मन की
रफ़्तार वाले दो पंख दे देने चाहिए जिससे उनका जब मन हो हम पल में अपने बूढ़े
माँ-बाप के पास पहुँच जाएँ और तसल्ली कर फिर अपने घरौंदे वापस आ जाएँ। डोली उठते
समय माँ-बाप दुखी ना हों इसलिए मन को कड़ा कर हम ये गीत गा तो लेती हैं ,
"साडा
चिड़िया दा चम्बा वे, बाबुल
असा उड़ जाना"...लेकिन भूल जाती हैं कि चिड़िया जैसे नर्म मन के पंखों पर अब
जिम्मेदारियों का पत्थर रखा जा चुका है। हम चाह कर भी उड़ नही सकती। कैसा मन दिया
है ओ खुदा!! जिसने जन्म दिया, उसको मेरे
कोख मे आने की खबर तो पहले दे दिया और उसके जाने का ज़रा-सा
भी एहसास मुझे होने ना दिया। मेरे साथ तो आपने अच्छा मज़ाक किया। इतनी बड़ी दुनिया में
आपको कोई नहीं मिला किस्मत का कटु खेल खेलने के लिए।
मुझे याद है, उस दिन सुबह
से ही कहीं मन नहीं लग रहा था। उस दिन फिर वही 30
नवंबर का खौफनाक दिन था, मैं
धीरे-धीरे बेचैनी से, बिना किसी को कुछ कहे उस मनहूस दिन के बीत जाने का
इंतज़ार कर रही थी। सोच रही थी, बस आज का दिन कट जाता फिर कोई
चिंता नहीं थी। वो दिन मेरे जीवन मे काली-अंधेरी सुरंग वाली रात की तरह था। सुबह फोन
पर खबर मिलते ही कि तुम्हारी तबीयत बिगड़ रही है, एक अनकहा डर
समा गया था मुझमे और साँझ होते ही तुम्हारे ना होने की खबर मिलना हमारी आत्मा का
सूरज अस्त होने जैसा था। इक अँधेरे ने मन को जकड़ लिया था और मैं घोंसले मे फड़फड़ाते
चिड़िया के नन्हें बच्चे की तरह कातर मन से तुम तक पहुँचने को बेकल थी। रात के दस बज चुके थे...गाडी अपनी तेज़ रफ़्तार से इलाहबाद की ओर
भागी जा रही थी लेकिन
मैं, कहीं तुम
तक रुक गयी थी। खुद को
तुमसे इतना अलग और अकेला इससे पहले तब भी नहीं महसूस किया था जब आज ही के दिन तेरह
साल पहले पापा हमें छोड़ के चले गए थे। कभी सोचा नहीं था कि फिर उसी अँधेरी सुरंग से गुज़रना
होगा जहाँ से
13 साल पहले गुज़री थी। फिर वैसे ही पहले जैसी सर्द अँधेरी रात और फिर
वही मेरी ग़म में डूबी नम आँखें जिससे भविष्य का कुछ भी देख पाना संभव नहीं। 30 नवंबर
2001 की उस रात
कितने अरमानों को समेटने के लिए अपने मन के आँचल को मजबूत कर रही थी। खुद को
बालकनी में खड़े हो समझा रही थी कि," ठीक है रेनू...कल भले ही ये माँ
का आँगन, बाबुल का देस, भाई-बहन सहेलियों की तरह घुली-मिली गलियाँ नहीं
होंगी लेकिन दिल को सुकून देता एक ख्वाब, कल हक़ीक़त मे तब्दील
हो जाएगा। इन्ही
सपनो को बुनते मेरी रात भोर की चादर ओढ़ने की तयारी में थी कि बुआ के चीत्कार
ने...रेनू, देखो
तुम्हारे पापा को क्या हो गया...मन के झीने आँचल को तार-तार कर दिया। तुम पापा को
बाहों में पकडे ज़ोर ज़ोर से जगा रही थी...साहब उठिए...बोलिये कुछ...बोल क्यों नहीं
रहे। रेनू देख बच्ची तेरे पापा को क्या हो गया और मैं स्तब्ध सी कभी उनका नब्ज़
पकड़ती तो कभी ज़ोर ज़ोर से हिला रही थी...रो रही थी...कहे जा रही थी...पापा, आप उठ जाइए...मैं कहीं नहीं जा
रही,
आपकी बिट्टी आपके साथ रहेगी। पहली बार ऐसा हुआ था जब पापा ने मेरी बात नही सुनी थी। मगर
तुमसे...तुमसे तो मैं कुछ कह ही नहीं पायी...ना कुछ सुन पायी। कितना
कुछ रोज़ का कहना-सुनना बाकी रह गया था।
रात भर आखें बरसती रही, ये सोच के आँसू थम नहीं रहे थे कि अब तुम्हें देखने को आँखें तरस जाएंगी।
अब तुम कभी भी दरवाज़ा खोलते ही सामने के सोफ़े पर बैठी हुई नहीं मिलोगी। रात के दो
बजे तक हमारे इंतज़ार मे दरवाज़े पर टकटकी लगाए तुम्हारी बूढ़ी आँखों से बरसते ममता
के नेह मे हम अब कभी नहीं भीग पाएंगे। एक सपना टूट चुका था। हम ट्रेन से उतर घर की
ओर बढ़े जा रहे थे। ये दुनिया का बाज़ार यूंही सजा हुआ था मगर तुम नहीं थी। बस
तुम्हारे ख़याल थे जो सागर की लहरों की तरह जेहन से आ कर टकरा रहे थे।
तुम्हारी यादों का बेशकीमती सामान, मेरे पलकों के पटल पर तैर कर किनारे लगे जा रहा था। तुम्हारी लाल डोरे वाली बोलती भूरी आँखें, चेहरे की चमक, गुलाबी होठों की मीठी मुस्कान...जिसे देख मैं अक्सर ज़िद करती, रूठती कि तुमने मुझे अपने जैसा सुन्दर क्यों नही पैदा किया। हलकी धूप से भी तुम्हारी कान्ति गुलाबी हो उठती, शायद इसलिए पापा तुम्हे 'गुलाबी' पुकारते थे। तुम्हारी आत्मिक और व्यवहारिक सुंदरता के आगे हमारी पीढ़ी नतमस्तक थी। मुझे याद है मेरे चौदह साल के भतीजे ने जब मुझसे कहा," चाची, जब नानी अभी इतनी खूबसूरत दिखती हैं तो अपने समय में कितनी ज़्यादा खूबसूरत रही होंगी...मैं उस समय पर होता तो नानी से ही शादी करता"। और हम हंसी से लोट-पोट हो गए थे। जब तुमने ये बात सुनी तो तुम ने हँसते हुए कहा...उस पगले को बोल...उसके लिए भी अपनी जैसी ही बहु ढूंढ दूंगी। तुम बिना ढूंढें कहाँ चली गयी...? यहाँ तक कि कितने अरमानों से छोटे की शादी तय की थी...उसको बिना घोड़ी चढ़ाये, बिना बलैया उतारे, बिना नयी बहु को घर-आँगन परिचय कराये कहाँ चली गयी...कितने अरमां थे तुम्हारे कि हम चारों भाई-बहन को अपने पैरों पर खड़ा कर, तुम गंगा नहा आओगी। फिर तुम काम को बीच में अधूरा छोड़ कैसे चली गयी...तुम्हारी तो ऐसी आदत नहीं थी। काम को अंजाम तक पहुंचाए बगैर तुम्हारे लिए चैन-आराम सब हराम था, फिर क्यों आज तुम आराम की नींद सो रही हो और हम दिल में बेचैनी लिए तुम तक पहुँचने के लिए मारे मारे फिर रहे हैं।
तुम्हारी यादों का बेशकीमती सामान, मेरे पलकों के पटल पर तैर कर किनारे लगे जा रहा था। तुम्हारी लाल डोरे वाली बोलती भूरी आँखें, चेहरे की चमक, गुलाबी होठों की मीठी मुस्कान...जिसे देख मैं अक्सर ज़िद करती, रूठती कि तुमने मुझे अपने जैसा सुन्दर क्यों नही पैदा किया। हलकी धूप से भी तुम्हारी कान्ति गुलाबी हो उठती, शायद इसलिए पापा तुम्हे 'गुलाबी' पुकारते थे। तुम्हारी आत्मिक और व्यवहारिक सुंदरता के आगे हमारी पीढ़ी नतमस्तक थी। मुझे याद है मेरे चौदह साल के भतीजे ने जब मुझसे कहा," चाची, जब नानी अभी इतनी खूबसूरत दिखती हैं तो अपने समय में कितनी ज़्यादा खूबसूरत रही होंगी...मैं उस समय पर होता तो नानी से ही शादी करता"। और हम हंसी से लोट-पोट हो गए थे। जब तुमने ये बात सुनी तो तुम ने हँसते हुए कहा...उस पगले को बोल...उसके लिए भी अपनी जैसी ही बहु ढूंढ दूंगी। तुम बिना ढूंढें कहाँ चली गयी...? यहाँ तक कि कितने अरमानों से छोटे की शादी तय की थी...उसको बिना घोड़ी चढ़ाये, बिना बलैया उतारे, बिना नयी बहु को घर-आँगन परिचय कराये कहाँ चली गयी...कितने अरमां थे तुम्हारे कि हम चारों भाई-बहन को अपने पैरों पर खड़ा कर, तुम गंगा नहा आओगी। फिर तुम काम को बीच में अधूरा छोड़ कैसे चली गयी...तुम्हारी तो ऐसी आदत नहीं थी। काम को अंजाम तक पहुंचाए बगैर तुम्हारे लिए चैन-आराम सब हराम था, फिर क्यों आज तुम आराम की नींद सो रही हो और हम दिल में बेचैनी लिए तुम तक पहुँचने के लिए मारे मारे फिर रहे हैं।
पिछली बार जाते हुए कभी नहीं सोचा था कि अगली बार
तुमसे आखिरी भेंट होगी। घर के ऑटो रुकते ही हाथ-पाँव ठंडे पड़ने लगे। ये कैसा मंज़र
आँखों के आगे तैरने वाला है, अंदाज़ा लगाने की हिम्मत ही नहीं
थी। दरवाज़ा खोलते ही तुम्हारा निष्प्राण शरीर देख सब कुछ जड़ हो गया। बस मैं थी और
तुम थी। और हमारे इर्द-गिर्द घूमता वो बीता हुआ सारा कालक्रम जिसमे एक-एक करके तुम
संग बिताए सारे पल, ग़म, खुशियाँ, हंसी, उदासी समाये जा रही थी। तुम्हारा हाथ मुझसे
छूटता जा रहा था और तुम अनंत काल के गर्त मे समाये जा रही थी। मैं चाह कर भी
तुम्हारी उन उँगलियों को पकड़ नहीं पा रही थी जिन्हे पकड़ कर मैंने बचपन मे चलना
सीखा, सही-गलत का रास्ता देखा, जिनसे
तुमने मुझे क,ख,ग,घ लिखना सिखाया। उन ठंडे-पड़े हाथों को कैसे छोड़ देती जो अपने एहसासों की
गर्मी से हममे ऊर्जा भर देती थी, जो नर्म मुलायम गरम रोटियों
को तोड़-तोड़ हमे खिलाती और माथे को सहलाते हुए हमे धीमे से सुला देती और चुपके से
फिर कामों मे लग जाती। आज भी तुम चुपके से ही गयी मगर हमेशा के लिए चिर-निद्रा मे।
हे ईश्वर! कितने निष्ठुर हो तुम। हमसे हमारी माँ
छीनते तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आई। बस एक बार हल्की-सी आहट कर देते, मैं उनकी बेलाग उखड़ती ठंडी साँसों को अपने सीने में तैरते खून से
गर्म कर देती। मैं, उनमे और जीने का जज़्बा भर देना
चाहती थी, अपनी
बातों से उनमे हौसला
भर देना चाहती
थी...हाँ, जानती हूँ, ये सब केवल मैं अपने स्वार्थ
के लिए चाहती थी...जिससे कि मैं खुश रह सकूँ, खुद पर इतनी अच्छी माँ पाने का
नाज़ कर सकूँ। क्या इतनी-सी खुशी तुम्हें गवारा नहीं थी? वो कितनी अलग थी सबसे....उनका जीवन,
दर्शन, चिंतन, नज़रिया,
समझ औरों से बिलकुल अलग था। मेरी उपलब्धियों पर फक्र से सर ऊँचा
कर लेने वाली माँ को मैं खोना नहीं चाहती थी। इतना ही था
तो तुम मुझे ले जाते। मेरे ना होने से उनका बड़का बच्चा ही खोता मगर माँ के ना होने हम सारे अनाथ हो गए। वो धुरी थी हमारी जिसके सहारे हम
सभी दूर रह भी एक दूसरे से बंधे थे और उनके इर्द-गिर्द तारों की तरह चक्कर काटते रहते थे। अब मैं
कहाँ जाऊं...किस से कहूँ कि अब मैं उस टूटते तारे की तरह हो गयी हूँ जिसको नही पता
कि वो कहाँ जाएगा और क्या करेगा। आपको कैसे समझाऊं कि वो हमारे लिए गंगा के उस टिमटिमाते
दीये की तरह थी जिसकी नन्ही-सी रौशनी, हमारे भीतर ज़िन्दगी के प्रति उल्लास को जिलाए रखती थी। दिल
कैसे यकीन करे कि गंगा का नन्हा दीया बुझ चुका है। घर का उजास मिट चुका है घर की
बैठक का वो कोना, जो पापा के जाने से रिक्त हुआ था अब अति...रिक्त
हो चुका है !!
माँ तुम्हारा जाना
ज्यों नर्म बचपन का खो जाना
सहसा नए कोपल से
कोमल हृदय का
जड़ सा कठोर हो जाना
माँ तुम्हारा जाना
दुख की तपती दोपहरी मे
या भादों-सी आँखों की बदरी मे
ज्यों सर के ऊपर से,
ममता का छप्पर उठ जाना
माँ तुम्हारा जाना
खोलनी हो कोई गाँठ मन की
या बाँटना हो कोई दर्द जीवन का
मन की गति से पहुँचे
उन संदेसों का
बैरंग पाती हो जाना
माँ तुम्हारा जाना
माँ तुम्हारा जाना
मन मे गहरे फैले रिक्तता का
अति---रिक्त हो जाना!!
(माँ
की याद मे--- रेणु मिश्रा)