Tuesday, January 19, 2016

संवेदनाओं का विहंगम दृश्य दिखाती कवितायेँ

काव्य-समीक्षा



कविता संग्रह - || अंतिम विदाई से तुरंत पहले ||

रचनाकार - || प्रांजल धर ||

इन दिनों हिंदी काव्यधारा में पूछा जाए तो हर तीसरे व्यक्ति को छोड़ चौथा व्यक्ति अपने को कवि कहता है। किन्तु कवि कहने और कवि होने में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह व्यष्टि से समष्टि हो जाने की क्रिया है। जो भावनायें सार्वभौमिक हैं (जैसे प्रेम, सुख, दुःख, हर्ष, विषाद इत्यादि) उन प्रत्ययों को हूबहू उसी संवेदना के साथ पिरो देना, वैश्विक सुख-दुःख से आत्म-सुख-दुःख को जोड़ देना ही कविता है। कहा भी गया है कि अपने लिए जिए तो क्या जिए, अपने लिए मरे तो क्या मरे। तो बीते दिनों, इन्ही भावनाओं से लबरेज़ एक काव्य-संग्रह नज़र के सामने से गुज़रा जिसका नाम है "अंतिम विदाई से तुरंत पहले"।  इसे पिछले वर्ष यानि 2014 में साहित्य अकादमी द्वारा "नवोदय योजना" के तहत प्रकाशित किया गया है। मूलतः गोण्डा (उ.प्र) से ताल्लुक रखने वाले कवि प्रांजल धर का यह पहला काव्य-संग्रह है। पचहत्तर कविताओं वाले इस काव्य-संग्रह में जीवन का हर स्वाद मौजूद है। इन कविताओं में भारतीय ग्राम्य-जीवन  की विषमता के संग संग समाज में व्याप्त आर्थिक दुर्व्यवस्थाओं का भी चित्रण है। जैसे इन पंक्तियों में अमीरी-गरीबी, दोनों दृष्टि के ज़रिये गरीबी का आकलन होता है-
"यह उनकी मुफलिसी का ताज़ा व्याकरण है
कि उनके
एयर-कंडीशनर का स्विच ख़राब हो गया है
और मजबूरी में वे जेठ की तपती दोपहरी
में महज़ कूलर के भरोसे सोते हैं।"
कवि, पेशे से पत्रकार है इसलिए देश-दुनिया में हो रहे सामाजिक और राजनितिक बदलावों पर भी पैनी नज़र रखता है और अपनी कविता के ज़रिये तीखी टिप्पणी भी करता है--
"और आत्महत्या कितना बड़ा पाप है, यह सबको नहीं पता,
कुछ बुनकर और विदर्भवासी इसका कुछ-कुछ अर्थ
टूटे-फूटे शब्दों में ज़रूर बता सकते हैं शायद"

या फिर " वोट फॉर बड़के भइया" में
"और दस शातिर उँगलियाँ
प्रतीक दसों दिशाओं में फैले
'भइया' के आतंकी साम्राज्य की
......
मानों पल-भर में हज़ार बार
पैदा हुआ हो हिटलर
और सौ बार हत्या हुई हो गांधी की।"
लेकिन साथ ही अधिक यात्रायें करने से जो ज्ञान में अभिवृद्धि हुई है, उन जानकारियों को कविताओं में समावेशित करने से, कविता अपने भाव-लिपि से दूर होती हुई नज़र आई है। कहीं-कहीं कविताओं में विदेशी जानकारी और उससे जुड़े नामावलियों की इतनी भरमार है कि कविता पढ़ने में ऊबन महसूस होने लगती है। "कुल इतनी कहानी", "खो गया सौंदर्य", "बियाना की याद", "ख़ैरआफ़ियत" कुछ ऐसी ही कवितायेँ हैं। कवि को जानकारियों को आरोपित करने की ऐसी सघनता से बचना चाहिए।
प्रांजल धर की प्रेम विषयक और भावना-प्रधान कवितायेँ, मन को अधिक बांधती हैं। वहाँ उनकी कविताओं में जो कथ्य है वो सीधे-सीधे मन को आत्मा से ऐसे जोड़ देता है जैसे कोई साधक अपनी साधना के जरिये सीधे-सीधे अपने इष्टदेव से जुड़ जाए। बीच में किसी बिचौलिए की आवश्यकता ही ना हो। इन कविताओं में प्रेमी-प्रेमिका, बहन, भाई जैसे संबंधों के जो रूप सामने आये हैं, उनके भाव इतने कोमल हैं कि इन कविताओं को बार-बार पढ़ने और दोहराने का मन हो उठता है। साथ ही  हिन्दू परिवार में नारी जीवन की विषमताओं का भी बड़े मार्मिक ढंग से चित्रण किया गया है। "अनारकली का लिप्यंतरण", "बहन", "हमारी बातें", "लव और प्रेम", "ना मिट पाने वाला निशान" और "प्रेम का वर्गीकरण" कुछ ऐसी ही कवितायेँ हैं । "प्रेम का वर्गीकरण" की कुछ पंक्तियाँ पढ़ने पर इसकी रोचकता समझ आ जाती है। जैसे-
पहले कहती थी तुम
मैं प्रेम करती हूँ तुमसे
वक़्त और हालात ने पढ़ाये कुछ पाठ
दी कुछ सीख जीवन की
और कहा तुमने,
मैं सच्चा प्रेम करती हूँ तुमसे
झूठे प्रेम की जानकारी हो चली थी तुम्हें।
आज कल हिंदी काव्यधारा में लंबी कवितायेँ लिखने का साहस कुछ ही कवि दिखा पाते हैं और प्रांजल धर उन साहसिक युवा कवियों में से हैं जो इस तरह के प्रयोग से हिचकते नहीं। इस संग्रह में "बेरोजगारी में", "मौत का रास्ता बिलकुल साफ़ है", "मुझे ले चलो अपने ही देस, नदियों" के शीर्षक वाली कवितायेँ कई खण्डों में विभाजित होते हुए भी एक-दूसरे में गुंथी हुई हैं। ये कवितायेँ लंबी होते हुए भी पाठक को बाँधे रखती हैं। वह सहजता से उन कविताओं के उतार-चढाव में खुद को बहता हुआ महसूस कर पाता है। फिर वो चाहे "बेरोजगारी में" कविता के एक खंड में जब पढता है कि, " यह सरकारी स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पनपी/ गैर सरकारी दोस्तियों का दौर था/ जिसका बाल-बांका कर न सकी कोई बेरोजगारी/" या फिर "यक़ीन नहीं होता/ कि कैसे चौड़े और चौकस हो कर/ बैठते थे हम बेरोजगारी के दिनों में!/ बेरोजगारी शायद ईंधन हुआ करती थी/ हमारे सपनों का।"
इसके अलावा कुछ और कवितायेँ जो पाठकों को बेहद पसंद आ सकती हैं जैसे, "बहुत ज़रूरी", "कुछ भी कहना खतरे से खाली नहीं", "वह भी एक दौर था" और "न कोई उम्मीद, न कोई..." प्रमुख हैं। एक आम आदमी के जीवन के उम्मीद, आशा, निराशा, डर और उदासी की बानगी को व्यक्त करती ये कवितायेँ बहुत अपनी-सी लगती हैं। इस तरह, इस संग्रह की लगभग सभी कवितायेँ न केवल अपने समय से मुठभेड़ करती हुई नज़र आती हैं बल्कि हाशिये तक पहुँच चुकी  संवेदनाओं को भी बचाये रखने में सफल रह पाती है।
द्वारा समीक्षा--
रेणु मिश्रा
अनपरा, सोनभद्र
ईमेल- remi.mishra@gmail.com
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कवि परिचय---
नाम -- प्रांजल धर
जन्म - हिंदी साहित्य के युवा कवियों में चर्चित रचनाकार के रूप में जाने जा रहे कवि प्रांजल धर का जन्म उत्तर-प्रदेश के छोटे से शहर गोंडा में हुआ है।
शिक्षा - भारतीय जनसंचार संस्थान, जे.एन.यू. कैम्पस से जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक
कार्य – देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख प्रकाशित। आकाशवाणी जयपुर से कुछ कविताएँ प्रसारित। देश भर के अनेक मंचों से कविता पाठ। सक्रिय मीडिया विश्लेषक। 'नया ज्ञानोदय', 'जनसंदेश टाइम्स' और ‘द सी एक्सप्रेस’ समेत अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भकार। जल, जंगल, जमीन और आदिवासियों से जुड़े कार्यों में सक्रिय सहभागिता। 1857 की 150वीं बरसी पर वर्ष 2007 में ‘आदिवासी और जनक्रान्ति’ नामक विशेष शोधपरक लेख प्रकाशन विभाग द्वारा अपनी बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक में चयनित व प्रकाशित। अवधी व अंग्रेजी भाषा में भी लेखन।
पुरस्कार व सम्मान - कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार। पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का प्रतिष्ठित भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार। वर्ष 2013 में पंचकूला में हरियाणा साहित्य अकादेमी की मासिक गोष्ठी में मुख्य कवि के रूप में सम्मानित एवं कई अन्य पुरस्कार।
पुस्तकें – ‘समकालीन वैश्विक पत्रकारिता में अख़बार’ (वाणी प्रकाशन से)। राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर 'महत्व : रामधारी सिंह दिनकर : समर शेष है'(आलोचना एवं संस्मरण) पुस्तक का संपादन एवं अन्य चर्चित पत्रिकाओं का संपादन।
सम्पर्क :
प्रांजल धर
2710, भूतल, डॉ. मुखर्जी नगर, दिल्ली – 110009
मोबाइल- 09990665881
ईमेल- pranjaldhar@gmail.com

Monday, May 18, 2015

रिक्त...अति---रिक्त (यादों के झरोखों से )


बचपन में, इम्तिहानों में अक्सर एक सवाल आता था "रिक्त स्थान भरिये", माँ हमे इम्तिहान से पहले सारे जवाब रटाती और हम उसमे याद किये गए जवाबों को भर देते थे। सवाल आराम से हल हो जाता था। लेकिन जीवन मे किसी के चले जाने से हो गए रिक्त स्थान को भरने का जवाब तुम क्यों नहीं सिखला के गयी ? माँ, तुमने क्यों नहीं बतलाया कि, रिक्तता इतनी खलती है कि रातों को नींद आना मुहाल हो जाता है। आँख बंद करते ही सब कुछ वापस से फिल्म की रील की तरह दौड़ने लगता है। जाने कौन उन सारी बीती बातों को रिवाइंड कर देता है। तुम्हारे बिना जीने की जद्दोजहद मे एक महीना होने को आ रहा है लेकिन अब भी आँखें बंद करती हूँ तो कानों मे भाभी की वो चीत्कार, "दीदीsss...मम्मी नहीं रहीं...दीदी", तीर की तरह मन की तहों में जाकर धंस जाता है। कितनी कोशिश की इसको निकालने की, उस दर्द से पीछा छुड़ाने की लेकिन सब नाकाम रही । फिलहाल तो मुझे कोई तरीका नहीं सूझ रहा। मन के किनारों से दर्द रिस रिस कर आँखों के पोरों पर आकर अटक जा रहा है। कोई पुरानी बात याद आते ही वो गालों पर टप्प से ढुलक जा रहा है। कितनी कोशिश कर रही हूँ कि भूल जाऊँ...मुझे कोई चोट नही लगी, कोई दर्द नही हो रहा...तुम्हारी तरह मुस्कुराती रहूँ ...लेकिन माँ..तुम जैसा साहस मुझमे कहाँ? 

मुझे याद है, जब भी मैं उदास होती, जाने कैसे तुम्हे पता चल जाता...इतनी हज़ार किलोमीटर दूर रहती फिर भी तुम्हे मेरी उदासी का एहसास हो जाता और तुम फ़ोन कर लेती। कहती आज तुझे सपने में देखा...झूठी-सच्ची कहानी गढ़ती और जानने की कोशिश करती कि तुम्हारी बच्ची क्यों उदास है? मैं भी तुम्हारी तरकीबें जान गयी थी...छुपा ले जाती थी अपना दर्द। मगर आज जब सोते हुए, एक उधड़े ऊन के गोले सा कोई सपना मेरी संवेदनाओं को तार तार कर रहा था और मैं रोते बिलखते उठ बैठी और ज्यों ही फोन उठाकर तुम्हारा नंबर डायल किया, मन सन्न रह गया इस एहसास से कि, "दिस पर्सन डस नॉट एक्सज़िस्ट...आप जिस नंबर पर कॉल कर रहे हैं वो अब इस दुनिया में नहीं हैं।" और मैं...मैं केवल मोबाइल हाथ में लिए घंटों ज़ार-ज़ार हो रोती रही, बिलखती रही। तुम्हे ज़ोर ज़ोर से पुकारती रह गयी। इतने दिनों से हर पल अपने को झूठलाती रही कि तुम कहीं नहीं गयी...तुम मेरे पास हो। कितने सांत्वनाओं से अपने को छुपा लिया था कि मैं तो तुम्हारा ही हिस्सा हूँ। तुमसे ही बनी हूँ। तुम्हारे खून पानी हवा का क़तरा ही तो मेरे नस नस में दौड़ रहा है। जो तुम हो वही मैं हूँ। मगर सभी सांत्वनाएं खोखली दीवार की तरह ढह गयी थी। मैं समझ चुकी थी कि अब मैं तुम्हे कभी देख नहीं पाऊँगी, तुम्हे छू नहीं पाऊँगी और जीवन में तुम्हारी आवाज़ कभी भी नहीं सुन पाऊँगी। वो तुम्हारा मुझे...'रेनू...ए बच्ची' पुकारना, सुनने के लिए मेरे कान हमेशा के लिए तरस जायेंगे। बचेंगे तो केवल आंसुओं के नरम क़तरे और यादों के खट्टे-मीठे लम्हे। अब इन्ही के भरोसे ज़िन्दगी कटेगी। अब तुमसे दर्द छुपाने की सारी तरकीबें फेल हो गयी हैं। मुझसे तुम्हारे जाने का दर्द, तुम्हारे ना होने की बेचैनी छुपाये नहीं छुप रही। मन धुआँ धुआँ हो सुलग रहा है और आँखें दिसंबर की बरसात हो गयी है...आत्मा से प्राण तक, धड़कन से साँस तक...सब कुछ भीग गया है। यादों का सैलाब मन के किनारे पर ऐसे टकरा रहा है, लगता है जैसे एक रोज़ साँसों का बाँध तोड़ के ही दम लेगा।

लेकिन, जानती हूँ ऐसा होगा नहीं। तुम होने नहीं दोगी क्योंकि तुम बहुत चाहती थी मुझे। तुम जानती थी, गर मुझे पता चला कि तुम मुझे छोड़ के जाने वाली हो तो मैं तुम्हे जाने नहीं दूँगी। कोई ना कोई बहाना बना के रोक लूँगी इसलिए चुप से, मुझसे बिना कुछ बोले चली गयी। यहाँ तक कि पिछले महीने भी जब तुमसे मिलने आई तब भी तुम मुझे यही एहसास दिला रही थी कि तुम बिलकुल ठीक हो। अब अपने सहारे चल-फिर पा रही हो। मगर मैं जान गयी थी कि इतने सालों से तुममे जान फूंकती तुम्हारी हिम्मत अब जवाब दे रही है। पापा के जाने के बाद जिस हौसले से तुमने हम चारों को संभाला था...उसी हौसले के पंख अब तीतर-बितर हो फड़फड़ा रहे थे। कितनी कोशिश की थी उसको उम्मीदों का मलहम लगा जिलाने की मगर हर कोशिश अधूरी रह गयी। जैसे अभी हर पल हर लम्हा ख़यालों पर इख़्तियार किये हुए हो...काश! उस वक़्त ख़यालों पर सवार रहती...काश!! तुम मुझसे मीलों दूर ना होती। काश!!! तुम्हारी बेचैनी, परेशानी, कसमसाहट को मैं पहले समझ जाती तो तुम्हें अपने से जुदा नहीं होने देती। ये काश, अगर-मगर, शायद जैसे शब्द ज़िन्दगी की डिक्शनरी से डिलीट क्यों नही हो जाते। जो चाहते हो पाता।

कभी कभी ईश्वर की नाइंसाफी पर भी कोफ़्त हो उठती है। उस ने लड़कियों को चिड़ियों की तरह मन तो दे दिए हैं पर उनकी तरह तन देना भूल गया। उसको हमें मन की रफ़्तार वाले दो पंख दे देने चाहिए जिससे उनका जब मन हो हम पल में अपने बूढ़े माँ-बाप के पास पहुँच जाएँ और तसल्ली कर फिर अपने घरौंदे वापस आ जाएँ। डोली उठते समय माँ-बाप दुखी ना हों इसलिए मन को कड़ा कर हम ये गीत गा तो लेती हैं , "साडा चिड़िया दा चम्बा वे, बाबुल असा उड़ जाना"...लेकिन भूल जाती हैं कि चिड़िया जैसे नर्म मन के पंखों पर अब जिम्मेदारियों का पत्थर रखा जा चुका है। हम चाह कर भी उड़ नही सकती। कैसा मन दिया है ओ खुदा!! जिसने जन्म दिया, उसको मेरे कोख मे आने की खबर तो पहले दे दिया और  उसके जाने का ज़रा-सा भी एहसास मुझे होने ना दिया। मेरे साथ तो आपने अच्छा मज़ाक किया। इतनी बड़ी दुनिया में आपको कोई नहीं मिला किस्मत का कटु खेल खेलने के लिए।

मुझे याद है, उस दिन सुबह से ही कहीं मन नहीं लग रहा था। उस दिन फिर वही 30 नवंबर का खौफनाक दिन था, मैं धीरे-धीरे बेचैनी से, बिना किसी को कुछ कहे उस मनहूस दिन के बीत जाने का इंतज़ार कर रही थी। सोच रही थी, बस आज का दिन कट जाता फिर कोई चिंता नहीं थी। वो दिन मेरे जीवन मे काली-अंधेरी सुरंग वाली रात की तरह था। सुबह फोन पर खबर मिलते ही कि तुम्हारी तबीयत बिगड़ रही है, एक अनकहा डर समा गया था मुझमे और साँझ होते ही तुम्हारे ना होने की खबर मिलना हमारी आत्मा का सूरज अस्त होने जैसा था। इक अँधेरे ने मन को जकड़ लिया था और मैं घोंसले मे फड़फड़ाते चिड़िया के नन्हें बच्चे की तरह कातर मन से तुम तक पहुँचने को बेकल थी। रात के दस बज चुके थे...गाडी अपनी तेज़ रफ़्तार से इलाहबाद की ओर भागी जा रही थी लेकिन मैं, कहीं तुम तक रुक गयी थी। खुद को तुमसे इतना अलग और अकेला इससे पहले तब भी नहीं महसूस किया था जब आज ही के दिन तेरह साल पहले पापा हमें छोड़ के चले गए थे। कभी सोचा नहीं था कि फिर उसी अँधेरी सुरंग से गुज़रना होगा जहाँ से 13 साल पहले गुज़री थी। फिर वैसे ही पहले जैसी सर्द अँधेरी रात और फिर वही मेरी ग़म में डूबी नम आँखें जिससे भविष्य का कुछ भी देख पाना संभव नहीं। 30 नवंबर 2001 की उस रात कितने अरमानों को समेटने के लिए अपने मन के आँचल को मजबूत कर रही थी। खुद को बालकनी में खड़े हो समझा रही थी कि," ठीक है रेनू...कल भले ही ये माँ का आँगन, बाबुल का देस, भाई-बहन सहेलियों की तरह घुली-मिली गलियाँ नहीं होंगी लेकिन दिल को सुकून देता एक ख्वाब, कल हक़ीक़त मे तब्दील हो जाएगा। इन्ही सपनो को बुनते मेरी रात भोर की चादर ओढ़ने की तयारी में थी कि बुआ के चीत्कार ने...रेनू, देखो तुम्हारे पापा को क्या हो गया...मन के झीने आँचल को तार-तार कर दिया। तुम पापा को बाहों में पकडे ज़ोर ज़ोर से जगा रही थी...साहब उठिए...बोलिये कुछ...बोल क्यों नहीं रहे। रेनू देख बच्ची तेरे पापा को क्या हो गया और मैं स्तब्ध सी कभी उनका नब्ज़ पकड़ती तो कभी ज़ोर ज़ोर से हिला रही थी...रो रही थी...कहे जा रही थी...पापा, आप उठ जाइए...मैं कहीं नहीं जा रही, आपकी बिट्टी आपके साथ रहेगी। पहली बार ऐसा हुआ था जब पापा ने मेरी बात नही सुनी थी। मगर तुमसे...तुमसे तो मैं कुछ कह ही नहीं पायी...ना कुछ सुन पायी। कितना कुछ रोज़ का कहना-सुनना बाकी रह गया था।

रात भर आखें बरसती रही, ये सोच के आँसू थम नहीं रहे थे कि अब तुम्हें देखने को आँखें तरस जाएंगी। अब तुम कभी भी दरवाज़ा खोलते ही सामने के सोफ़े पर बैठी हुई नहीं मिलोगी। रात के दो बजे तक हमारे इंतज़ार मे दरवाज़े पर टकटकी लगाए तुम्हारी बूढ़ी आँखों से बरसते ममता के नेह मे हम अब कभी नहीं भीग पाएंगे। एक सपना टूट चुका था। हम ट्रेन से उतर घर की ओर बढ़े जा रहे थे। ये दुनिया का बाज़ार यूंही सजा हुआ था मगर तुम नहीं थी। बस तुम्हारे ख़याल थे जो सागर की लहरों की तरह जेहन से आ कर टकरा रहे थे। 

तुम्हारी यादों का बेशकीमती सामान, मेरे पलकों के पटल पर तैर कर किनारे लगे जा रहा था। तुम्हारी लाल डोरे वाली बोलती भूरी आँखें, चेहरे की चमक, गुलाबी होठों की मीठी मुस्कान...जिसे देख मैं अक्सर ज़िद करती, रूठती कि तुमने मुझे अपने जैसा सुन्दर क्यों नही पैदा किया। हलकी धूप से भी तुम्हारी कान्ति गुलाबी हो उठती, शायद इसलिए पापा तुम्हे 'गुलाबी' पुकारते थे।  तुम्हारी आत्मिक और व्यवहारिक सुंदरता के आगे हमारी पीढ़ी नतमस्तक थी। मुझे याद है मेरे चौदह साल के भतीजे ने जब मुझसे कहा," चाची, जब नानी अभी इतनी खूबसूरत दिखती हैं तो अपने समय में कितनी ज़्यादा खूबसूरत रही होंगी...मैं उस समय पर होता तो नानी से ही शादी करता"। और हम हंसी से लोट-पोट हो गए थे। जब तुमने ये बात सुनी तो तुम ने हँसते हुए कहा...उस पगले को बोल...उसके लिए भी अपनी जैसी ही बहु ढूंढ दूंगी। तुम बिना ढूंढें कहाँ चली गयी...? यहाँ तक कि कितने अरमानों से छोटे की शादी तय की थी...उसको बिना घोड़ी चढ़ाये, बिना बलैया उतारे, बिना नयी बहु को घर-आँगन परिचय कराये कहाँ चली गयी...कितने अरमां थे तुम्हारे कि हम चारों भाई-बहन को अपने पैरों पर खड़ा कर, तुम गंगा नहा आओगी। फिर तुम काम को बीच में अधूरा छोड़ कैसे चली गयी...तुम्हारी तो ऐसी आदत नहीं थी। काम को अंजाम तक पहुंचाए बगैर तुम्हारे लिए चैन-आराम सब हराम था, फिर क्यों आज तुम आराम की नींद सो रही हो और हम दिल में बेचैनी लिए तुम तक पहुँचने के लिए मारे मारे फिर रहे हैं। 

पिछली बार जाते हुए कभी नहीं सोचा था कि अगली बार तुमसे आखिरी भेंट होगी। घर के ऑटो रुकते ही हाथ-पाँव ठंडे पड़ने लगे। ये कैसा मंज़र आँखों के आगे तैरने वाला है, अंदाज़ा लगाने की हिम्मत ही नहीं थी। दरवाज़ा खोलते ही तुम्हारा निष्प्राण शरीर देख सब कुछ जड़ हो गया। बस मैं थी और तुम थी। और हमारे इर्द-गिर्द घूमता वो बीता हुआ सारा कालक्रम जिसमे एक-एक करके तुम संग बिताए सारे पल, ग़म, खुशियाँ, हंसी, उदासी समाये जा रही थी। तुम्हारा हाथ मुझसे छूटता जा रहा था और तुम अनंत काल के गर्त मे समाये जा रही थी। मैं चाह कर भी तुम्हारी उन उँगलियों को पकड़ नहीं पा रही थी जिन्हे पकड़ कर मैंने बचपन मे चलना सीखा, सही-गलत का रास्ता देखा, जिनसे तुमने मुझे क,,,घ लिखना सिखाया। उन ठंडे-पड़े हाथों को कैसे छोड़ देती जो अपने एहसासों की गर्मी से हममे ऊर्जा भर देती थी, जो नर्म मुलायम गरम रोटियों को तोड़-तोड़ हमे खिलाती और माथे को सहलाते हुए हमे धीमे से सुला देती और चुपके से फिर कामों मे लग जाती। आज भी तुम चुपके से ही गयी मगर हमेशा के लिए चिर-निद्रा मे।

हे ईश्वर! कितने निष्ठुर हो तुम। हमसे हमारी माँ छीनते तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आई। बस एक बार हल्की-सी आहट कर देते, मैं उनकी बेलाग उखड़ती ठंडी साँसों को अपने सीने में तैरते खून से गर्म कर देती। मैं, उनमे और जीने का जज़्बा भर देना चाहती थी, अपनी बातों से उनमे हौसला भर देना चाहती थी...हाँ, जानती हूँ, ये सब केवल मैं अपने स्वार्थ के लिए चाहती थी...जिससे कि मैं खुश रह सकूँ, खुद पर इतनी अच्छी माँ पाने का नाज़ कर सकूँ। क्या इतनी-सी खुशी तुम्हें गवारा नहीं थी? वो कितनी अलग थी सबसे....उनका जीवन, दर्शन, चिंतन, नज़रिया, समझ औरों से बिलकुल अलग था। मेरी  उपलब्धियों पर फक्र से सर ऊँचा कर लेने वाली माँ को मैं खोना नहीं चाहती थी। इतना ही था तो तुम मुझे ले जाते। मेरे ना होने से उनका बड़का बच्चा ही खोता मगर माँ के ना होने हम सारे अनाथ हो गए। वो धुरी थी हमारी जिसके सहारे हम सभी दूर रह भी एक दूसरे से बंधे थे और उनके इर्द-गिर्द तारों की तरह चक्कर काटते रहते थे। अब मैं कहाँ जाऊं...किस से कहूँ कि अब मैं उस टूटते तारे की तरह हो गयी हूँ जिसको नही पता कि वो कहाँ जाएगा और क्या करेगा। आपको कैसे समझाऊं कि वो हमारे लिए गंगा के उस टिमटिमाते दीये की तरह थी जिसकी नन्ही-सी रौशनी, हमारे भीतर ज़िन्दगी के प्रति उल्लास को जिलाए रखती थी। दिल कैसे यकीन करे कि गंगा का नन्हा दीया बुझ चुका है। घर का उजास मिट चुका है घर की बैठक का वो कोना, जो पापा के जाने से रिक्त हुआ था अब अति...रिक्त हो चुका है !!

माँ तुम्हारा जाना
ज्यों नर्म बचपन का खो जाना
सहसा नए कोपल से
कोमल हृदय का
जड़ सा कठोर हो जाना
माँ तुम्हारा जाना

दुख की तपती दोपहरी मे
या भादों-सी आँखों की बदरी मे
ज्यों सर के ऊपर से,
ममता का छप्पर उठ जाना
माँ तुम्हारा जाना

खोलनी हो कोई गाँठ मन की
या बाँटना हो कोई दर्द जीवन का
मन की गति से पहुँचे
उन संदेसों का
बैरंग पाती हो जाना   
माँ तुम्हारा जाना

माँ तुम्हारा जाना
मन मे गहरे फैले रिक्तता का
अति---रिक्त हो जाना!!


(माँ की याद मे--- रेणु मिश्रा)

Saturday, March 21, 2015

लहू, जब खारा पानी बन गया !!

कैसा लगे आपको, अगर कोई आपसे वादा करे बस यूँही दिल रखने के लिए नहीं...बल्कि बेजोड़ तोड़ उसे निभाने के लिए और आप भी उसे सच मान जाएँ। उतना ही सच जितना कि रोज़ पूरब से उग कर पश्चिम तक जाने का सूरज का सच है। पहाड़ों के दामन से फिसल कर समुद्र में खो जाने का नदिया का सच है। उतना ही भरोसा जितना एक नन्हे बच्चे को गोद से उछाल दिए जाने पर होता है कि उछालने वाला खेल रहा है उससे, वो उसे गिराएगा नहीं। वो एक पल को डरता ज़रूर है लेकिन यकीन भी रखता है कि उसके साथ कोई हादसा नहीं होने वाला और वो खिलखिला पड़ता है और गोद में लौटते ही एक सुकून भरी मुस्की दे देता है। 
तो ऐसे ही एक सुकून की, एक सच की, एक भरोसे की, एक वादे की शिकार मैं भी हो गयी। अब ऐसा मत सोचिये कि मैं अकेली हूँ ऐसे हादसों की शिकार। आप भी हुए ही होंगे...क्यों नहीं हुए क्या...अगर नहीं हुए तो आल द बेस्ट क्योंकि ये जो दुनिया में लोग है ना वो आपको बिना झटका दिए, कहाँ मानने वाले हैं। सो तैयार रहिये। खैर! हाँ तो मैं कह रही थी कि मैं शिकार हो गयी या यूँ कहें जान-बूझ के बनाया गया। पूरे सिनेरियो को सोचते हुए तो यही लगता है कि शिकार या बेवकूफ बनाया गया। या ये भी हो सकता है कि मैं खुद ही बेवकूफ होऊं। नहीं तो आज कल 'एक हाथ से ले एक हाथ से दे' वाले व्यापारी दुनिया में मैंने कैसे किसी पर इतना यकीन कर लिया कि वो मेरा भरोसा कभी नहीं तोड़ेगी। दोस्ती हमेशा दिल से निभाएगी। लेकिन आज कल दिल का काम खून पंप करने के अलावा कुछ भी नहीं है और कभी तो वो भी नहीं क्योंकि अब जिस्म में लहू नहीं खारा पानी बहता है...छोटी सोच का मटमैला खारा पानी। 
कहते हैं ना, दोस्त का दुश्मन...दोस्त। उसने भी दुनियादारी की किसी किताब में से पढ़ लिया होगा। अब देखो...अभी भी मैं उसी की साइड ले रही हूँ। अब ले रही हूँ तो ले रही हूँ...क्या करूँ, इसी फितरत की तो शिकार हूँ। एक बार दोस्त मान लेने पर जब तक जान सूख कर हलक में ना आ जाये...तोड़ेंगे थोड़े ही दोस्ती। लेकिन हाँ हाँ हाँ...पीठ में छुरा घोंपाने के बाद नहीं निभा सकती। ना बिलकुल भी ना...ये मेरे उसूल के खिलाफ है। उसूल...हा हा हा...कितना खतरनाक लगता है ना ये शब्द। इसलिए कभी कभी, एक्सट्रीम कंडीशन में ही इस्तेमाल करती हूँ, जब दिल हड़ताल कर देता है इस्तेमाल होने से। 
इस्तेमाल!! तो क्या इस्तेमाल ही तो किया उसने। उसने ही तो कहा था, 'जब तक तेरी मेरी दोस्त रहेगी, ये वादा है मेरा कि उस तीसरी का कोई चांस नहीं। मैं अपनी ज़िन्दगी यानि अपनी किताबों में उसका कोई ज़िक्र नहीं करुँगी।' ये बात उसने मेरी दोस्ती के फक्र में, बिना किसी दबाव के कही थी। 
लेकिन आज ये क्या हुआ, उसकी किताब मेरे हाथ में है और मेरा हर राज़ उसकी किताब में। क्या इसलिए बनाया था मैंने उसे अपना राज़दार कि वो मेरी सारी बातें, मेरी दुनिया से शिकायतें, मेरी ज़िन्दगी के लुके-छुपे लम्हे...सब कुछ...बस कुछ चंद सिक्कों और ज़रा सी शौहरत के लिए सरेआम कर दे। जो बात वो जानती थी, मैं जानती थी, अब सारी दुनिया जानेगी। अब इसके बाद सोचती हूँ...दोस्ती भी कैसे तोड़ूँ, वो इस बात को भी सरेआम कर शोहरत कमाएगी। उसने दुनियादारी के चैप्टर अच्छे से पढ़ें हैं। रिश्तों का व्यापार करना जानती है और मैं फिर 'सामान' की तरह खरीदी बेची जाऊँगी। इसलिए अब थोड़ी समझदारी दिखानी पड़ेगी। अनाड़ी हो के काम चलने वाला नहीं। मैं निभाऊंगी दोस्ती...दिल से नहीं, दिमाग से 

Thursday, March 19, 2015

वहां तक आज़ाद हूँ जहाँ तक ज़ंजीर है !!


प्रिय दोस्तों,
नमस्कार...आज बड़े दिनों के बाद फिर से इस ब्लॉग पर चहल कदमी करना शुरू किया है। पढ़िये स्त्री-विमर्श पर मेरा नया आर्टिक्ल। आप नीचे दिये गए लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं और नहीं तो Unedited वर्शन मैं पोस्ट कर रही हूँ...उसको भी पढ़ सकते हैं।

http://www.liveindiahindi.com/renu-mishra-article-on-women


सदियों से चले आ रहे स्त्री-विमर्श से जुड़े कई प्रश्न कि 'स्त्री मुक्ति क्या है? उन्हें अधिकार क्यों नहीं पता या वो अपने हक़ से वंचित क्यों है? क्या संभावनाएं तलाश रही हैं स्त्रियां अपने अस्तित्व की स्वीकार्यता के लिए? सोच में, समझ में, विचारों में कितनी स्वतंत्र हैं कितनी परतंत्र इसका भान भी कैसे हो?', आज भी मुंह बाए वैसे ही खड़े हैं जैसे पहले थे। सवाल उठाने वाली स्त्रियां बदल गयी हैं लेकिन जवाब देने वाली पितृसत्तात्मक सोच आज भी यूँही उनके आज़ादी के विचार पर नाग की तरह कुंडली मार कर बैठी हुई है।

इस पर यह कहना कि आज की लड़कियां/स्त्रियां स्वतंत्रता का मूल्य नहीं समझती, वो स्वछंद हो चुकी हैं तो मैं ये बताने में बिलकुल भी गुरेज़ नहीं करुँगी कि पहले पता तो लगने दो, स्वंतंत्रता के बारे में, उन्हें आईडिया भी तो लगे कि उनका अस्तित्व भी है और उनकी भी समाज में उतनी ही हिस्सेदारी है जितनी पुरुषों की। उन्हें इसका भान तो पहले हो फिर उनकी स्वतंत्रता- स्वछँदता की सीमा रेखा तय की जा सकती है और उनके अधिकारों के विषय में बात हो सकती है क्योंकि  अभी तो उन्हें इसी बात का आभास नहीं है कि वो किन सोचों में बंधी हुई हैं या यूँ कह लीजिये परतंत्र भी हैं। अभी वो पुरुषवादी सोच के चट्टान के नीचे दबी हुई हैं लेकिन उफ्फ्फ करना नहीं जानती। वो भीख में मिले कुछ अधिकारों और सम्मान से ही खुश हो जाती हैं। उन्होंने तो अभी बस आज़ादी का स्वप्न भर देखा है, आज़ाद ख्याल की फरमाइश तो अभी भी नहीं कर सकती। गीतकार पीयूष मिश्रा की ग़ज़ल का एक शेर जो औरत की आज़ादी के सन्दर्भ में कोरी सच्चाई बयां करता है-

“हसरते आज़ादी की ये अच्छी ताबीर है
वहां तक आज़ाद हूँ जहाँ तक ज़ंजीर है!!”

खयालों के पंख तो अभी फड़फड़ा ही नहीं पाये तो स्त्री स्वतंत्रता को स्वच्छदंता का जामा कैसे पहनाया जा सकता है? आज भी कार्यस्थल से लेकर घर तक, स्त्री पुरुष से अधिक काम करती है। घर परिवार से लेकर बच्चों तक को सम्भालने की जिम्मेदारी उन्ही के ऊपर होती है लेकिन फिर भी अगर ज़रा भी मुंह खोल कर अपने हक़ की बात कर ले तो उन्हें परिवार विरोधी मान लिया जाता है। उन्हें अपने हक़ के लिए मुकदमा लड़ना पड़ता है। कहा जाता है ससुराल स्त्री का अपना घर होता है। वहीँ उन की डोली उतरती है और वही से अर्थी तो क्यों नहीं ब्याह के साथ ही पति के घर में उसके नाम संपत्ति कर दी जाती है। क्यों उसे किसी और की दया पर जीने के लिए मजबूर किया जाता है। आज भी सुहाग उजड़ जाने पर उस पर अभागिन होने का विशेषण चस्पा दिया जाता है। ऐसे विशेषण हम पुरुषों के लिए क्यों नही अपनाते? क्योंकि ऐसा हमें सिखाया ही नहीं जाता। हमारे ऊपर अच्छी लड़की, सुशील पत्नी, सुलक्षणा माँ-बहन का या फिर भले घर की स्त्री का तमगा जो लगा दिया जाता है। बचपन से दादी- नानी, माँ- मौसी सबको गलत के लिए चुप रहना और हर बात पर हाँ में सर हिलाते रहने की जो परंपरा देखी है और उसके बाद उनको अच्छा घोषित कर जो महान होने का मैडल पहनाया जाते देखा है, बस उसी मैडल की आकांक्षा में हम अभी भी जुबान पर ताला लगाये बैठे हैं। सामाजिक व्यवस्था गाँव की हो, कसबे की या शहर की हो, पुरुष सत्तात्मक्ता हमारे रग रग में व्याप्त है। पुरुष का कोई भी रूप हो उनपर हावी पुरुषवादी सोच ही रहती है। पच्चीस प्रतिशत पढ़े लिखे या कहा जाए संवेदनशील पुरुषों को छोड़ दिया जाए तो बाकि पुरुषों की मानसिकता निम्न स्तर की ही होती है जिसमे स्त्रियों को 'माल' की निगाह से देखने से भी गुरेज़ नहीं किया जाता। हमारे समाज में बलात्कार, खाप, हॉनर किलिंग जैसी प्रवृतियां, इन्ही घटिया मानसिकता और नारकीय सोच की उपज है जहाँ स्त्रियों को वस्तु की तरह ट्रीट किया जाता है। उनके इनकार को पुरुष अपने अहम् से जोड़ लेते हैंउन पर दकियानूसी सोच हावी हो जाती है कि आखिर एक तुच्छ औरत कैसे अपनी जुबान खोल कुछ बोल सकती है या उसे मना कर सकती है। बस यहीं शुरू हो जाता है स्त्रियों को विलुप्त प्रजाति बनाने का खेल। 

यह पुरुषवादी सोच का ही नतीजा है आज अगर बेड़ियों को तोड़ने की बात या आज़ाद होने की बात की जाती है तो स्त्रियों पर परिवार तोड़ने या अराजकता फ़ैलाने जैसे आरोपों को मढ़ दिया जाता है। लेकिन यहाँ सोच का दूसरा नज़रिया इख्तियार करना होगा। हर पुरुषवादी सोच को ये मानना होगा कि स्त्री सम्बन्धों से मुक्ति नहीं बल्कि सम्बन्धों मे मुक्ति चाहती है। उसे भी स्पेस कि दरकार है। पुरुष को अपने सोच कि उंगली पकड़ा कर उसे अपने इशारे पर चलाने कि कवायद बंद करनी होगी। ये सोचना कि पुरुषवादी सोच के चश्मे से ही सब सच और सही दिखता है सरासर गलत होगा। उसे भी घर के छोटे मुद्दों से लेकर घर के बड़े मुद्दों तक अपना निर्णय लेने कि स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उसे कमतर ना आँकते हुए उस पर विश्वास और भरोसा करने कि ज़रूरत है। हम स्त्रियाँ, परिवार को तोड़ कर तो कुछ करने के पक्ष में है ही नहीं लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हमेशा बलिदान की जिम्मेदारी स्त्रियां ही क्यों निभाएं? क्यों स्त्रियाँ ही जग जीतने से पहले घर जीतने कि बात करें? क्यो स्त्रियाँ ही पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो का राग आलाप पुरुषवादी अहम को शांत करें? इन ही क्यों मे ही इन का उत्तर भी छिपा है। क्योंकि जो एक बार सामंत बन जाता है वो इतनी जल्दी राजगद्दी नहीं छोड़ सकता। उसे अपनी विरदावली सुनने कि आदत पड़ चुकी होती है। मेरा मानना है कि चाहे कोई भी सत्ता हो जब तक कि सत्ता ना छोड़ने लोभ जड़ों में जमा रहेगा तब तक किसी का कुछ भी भला होने वाला नहीं। मानसिकता को और सोच को बदलने की ज़रुरत है। मर्द या औरत को नहीं। सत्ता हाथ से निकलने के भय से मर्द तो केवल उस सोच का प्रतिनिधित्व करता है। रही बात ज़िम्मेदारी कौन निभाए और कितनी निभाए, ही तो सारे फसाद की जड़ हैहम सामने वाले को दुख मे देख ही नहीं सकते। अपने हक़ के लिए भले ही आवाज़ ना निकाल पाये लेकिन दूसरों को समझाने की बात तो कभी सीखी ही नहीं। अनंत युगों से बलिदानी का पाठ पढ़ कर जो आए हैं। खून में बह रहा है ना चाकरी करना। वही देखा है अपनी माँ दादी को करते। रिक्वेस्ट नाम के शब्द कहाँ होते थे उनकी डिक्शनरी में। रिक्वेस्ट तो वो करती थी। चलिए ना जी खाना खा लीजिये, आप रहने दीजिये मैं फलाना फलाना सब काम कर लूँगी। शक्ति-स्वरूपा बनने ही लालसा रहती है हममे वरना पुरुषों को स्त्रियों से कहाँ कोई अपेक्षा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जैसी बचपन से हमारी कंडिशनिंग होती आई है बस उसी खांचे मे हम सोचते हैं। उसके इतर सोचने के लिए ना तो स्त्री हिम्मत दिखा पाती है और ना पुरुष उस अलग सोच को बर्दाश्त कर पाता है। नतीजा घर तोड़ने का, अराजकता फैलाने का आरोप स्त्रियॉं के सिर आ जाता है।  

इन्ही आरोपों प्रत्यारोपों से सांकल मे जकड़कर स्त्री-मुक्ति का मुद्दा जहां था वहीं का वहीं रह जाता है। हरेक स्त्री को स्त्री-विमर्श की वांछाओ को समझना होगा। सबका साथ सबका विकास जैसे सोच को समग्रता से अपने और अन्य स्त्रियों के भीतर पनपाना होगा। कोई बदलाव तब तक संभव नहीं जब तक कि खुद स्त्रियाँ दूसरी स्त्री को समझने का प्रयास नहीं करेगी। बस खांचे मे फिर रह कर खुश रहने मे कोई बदलाव संभव नहीं। हरेक स्त्री के दर्द को अपना दर्द मानना पड़ेगा तभी हरेक स्त्री खुश हो पाएगी। उन्हे महान होने के सर्टिफिकेट से कन्नी काटनी होगी। एक सामान्य स्त्री बनकर ही हर स्त्री का दुख समझ पाएंगे। दूसरी बात अपनी अस्मिता को पहचानना होगा। किसी भी गलत के इंकार या ना बोलने की परिपाटी चालू करनी पड़ेगी। हो सकता है एक-दो बार पुरुष मन को चोट लगे लेकिन बिना नकार के कोई बदलाव संभव नहीं। तीसरी बात, या समझना होगा कि बदलाव का बयार कोई बाहरी नहीं लाने वाला। इसकी शुरुआत हमे अपने घर से ही करनी होगी। अपनी बेटियों को हम इसलिए ना पढ़ाएँ कि उनकी अच्छे घर मे शादी हो सके, बल्कि इसलिए पढ़ाएँ जिससे वो अपने मे सक्षम हो सकें। वो आर्थिक दृष्टि से किसी पर भी आश्रित ना रहें और मानसिक आधार पर इतनी मजबूत रहे कि कोई दबाव मे लेकर कोई काम ना करा सके। वो अपने निर्णय स्वयं ले सके और हम उनकी आधारशिला बन उनको डगमगाने से बचाएं। अपने बेटों मे स्त्रियों के प्रति संवेदनशील होने का बीज बोना होगा। जिस दिन घर के कामों मे दोनों बराबर की हिस्सेदारी निभाने की प्रक्रिया समझ जाएंगे उस दिन से स्त्री-उत्थान का नया इतिहास शुरू हो जाएगा। लेकिन सभी की शुरुआत केवल और केवल घर से शुरू होगी। अब सोच को बदलने का समय आ गया है। जिस तरह आग की एक चिंगारी ने विकास के नए पहिये आविष्कार किया था उसी प्रकार जिगर मे लगे इस आग से स्त्रियाँ भी बदलाव की नयी क्रांति लाएँगी। मुक्ति का नए मार्ग तलाश पाएँगी। बस ज़रूरत है तो सोच बदलने की। एक स्त्री को दूसरी स्त्री की सखी बनने की। और इस आग को यूंही हवा देते रहने की।

(रेणु मिश्रा)
अनपरा, सोनभद्र
ईमेल- remi.mishra@gmail.com    





Tuesday, July 1, 2014

**************ज़िंदगी के टिमटिमाते दिये**************


कुछ लोग आपकी ज़िंदगी मे टिमटिमाते दिये की तरह होते हैं...सूरज जैसा आँखों को चौंधिया देने वाला उजाला नहीं करते, लेकिन अपने स्नेह के मद्धम रोशनी से आपकी ज़िंदगी की अंधेरी गलियों को रौशन करते जाते हैं...आपको एहसास भी नहीं होता, और आप अपने बेनूरी से बाहर आ चुके होते हैं।
यहाँ नाम नहीं लूँगी...उन उजालों का...नहीं तो रश्क हो जाएगा उन्हे खुद पर। पर मुझे गुमान है अपने उन टिमटिमाते दीयों पर :)

Friday, February 21, 2014

...और मछलियाँ तैरने लगीं :)

महिलाओं की बहुचर्चित पत्रिका "बिंदिया" के जुलाई अंक मे "बाल-मन" पर मेरा ये लेख, आप सभी ज़रूर पढ़िएगा :)

आज शाम, वॉक से लौटी तो ये देखने के लिए कि बच्चे क्या कर रहे हैं...उनके कमरे मे गयी । बिटिया मैथ्स के उलझनों के साथ साथ किसी और उलझन मे दिखी और बेटा...कमरे मे ही क्रिकेट कि प्रैक्टिस मे व्यस्त!!

मुझे देखते ही बोला...मम्मा, आप जो काम दे कर गयी थी मैंने कर लिया, सब याद हो गया मुझे...चाहो तो सुन लो पर बिटिया का चेहरा कुछ छुपाने और बताने के उलझन मे जस का तस फंसा था।

अभी कुछ और समझने की कोशिश करती, मेरी निगाह कमरे के सामने वाली दीवार पर गयी। देखती क्या हूँ कि.....कलर पेंसिल से एक थोड़ी मोटी और एक थोड़ी छोटी मछली बुलबुले छोड़ते हुए, दीवार पर तैरने के जद्दोजहद मे  लगी हुई हैं :P :D। देखकर हंसी भी आ रही थी......पर अपनी हंसी पर नाराजगी का मुखौटा लगाते हुए वापस मुड़ी तो बेटी थोड़ा और उलझ चुकी थी। वो सोच मे थी कि किस की कितनी डांट पड़ेगी...और मैंने भी अपना मम्मी-पना झाड़ते हुए डांटने का कार्यक्रम शुरू कर दिया

पहला ही सवाल दागा...किसकी कारिस्तानी है ये ?? दोनों निरुत्तर खड़े रहे।  जबकि मैं जानती थी ये छोटे की ही कारिस्तानी है...फिर भी दोनों भाई बहन के बीच का प्यार देख रही थी...कोई किसी का नाम नहीं ले रहा था :)
इस पर भी अपने डांट का बौछार कम ना करते हुए....अभी अभी इसी साल पुताई कराई थी...सोचा था चलो अब एक-दो साल की छुट्टी पर तुम लोग कहाँ मानने वाले हो ?? कितना समझाया था कि बच्चों घर साफ रखना है, दीवारें गंदी नहीं करनी है...कोई पेंसिल नहीं चलाएगा....ब्ला ब्ला ब्ला

मेरा इतना कहना था कि, बेटा चट से बोल उठा...मम्मा, पर ये तो कलर पेंसिल है। मैंने भी झट से उसे अपने पास खींचते हुए, बोली...पकड़ा गया चोर !! तूने ही बनाया है न इन मछलियों को (अपनी हंसी छिपाते हुए ), बेटी ने सर पे हाथ रख लिया कि, लो हो गया गड़बड़-घोटाला ।

बेटा बड़ी मासूमियत से बोला, मम्मा...क्या इतने बड़े नीले समंदर मे मेरी दो नन्ही नन्ही मछलियाँ भी नहीं रह सकती?? मैंने भी ध्यान से देखा तो वो उस सामने वाली दीवार कि ओर इशारा कर रहा था, जो नीले रंग मे पुती हुई थी। वो मेरे लिए केवल साफ सुथरी दीवार थी जिस पर कारिस्तानी कर दी गयी थी पर उस कोरे मन के लिए बड़ा सा नीला समंदर !!

अब मैं निरुत्तर किनारे पर खड़ी थी और सामने सवाल लिए भोले मन का अथाह समंदर हिलोरें ले रहा था। दोनों को सीने से लगाया और जवाब दिया....क्यों नहीं रह सकती...बिलकुल रह सकती हैं :)

तभी अपने कंधों पर मजबूत हाथों को महसूस किया...पलट के देखा तो ये मौन खड़े होकर हमारी बातें सुन के मुस्कुरा रहे थे और मैं इशारों से समझा रही थी कि मेरे बच्चों को कोई और कुछ कहे, ये मुझे गवारा नहीं। उन्हे केवल मैं ही डांट सकती हूँ...यहाँ तक कि आप भी नहीं !!

(प्रिय पाठकों...आप सब से भी अनुरोध है कि बाल मन को खिलने दीजिये। वो अपने हिसाब से अपना ज़मीं-आसमा तय कर लेंगे...बस हर पल उन पर अपने प्यार की धूप और ज़रूरत के अनुसार डांट के खाद-पानी को देते रहिए...बड़े हो कर सब के जीवन मे हरियाली ले आएंगे )






Saturday, January 11, 2014

“नयी बीमारी...पुछेरिया”


भई अभी तक हमने तो जौंडिस, टाइफाइड, मलेरिया के बारे मे ही सुना था, झेला था पर अब लगता लगता है आज कल, लोग एक नयी बीमारी से संक्रमित हो गए हैं....”पुछेरिया- पूछ के करना”। जिसको देखो यार वो हर काम पूछ के करने लगा है। बड़ी तेज़ी से फैल रही है ये बीमारी...शायद बर्ड फ्लू से भी ख़तरनाक है। बर्ड फ्लू के लिए तो विदेश से लौटे हुए यात्रियों का संपर्क ज़रूरी है...किन्तु ये रोग तो मेट्रो शहरों से लेकर छोटे शहरों के हर नुक्कड़, हर चौराहे पर अनशन करता हुआ मिल जाएगा। इस बीमारी से ग्रसित इंसान अपना हर काम करने के लिए लोगों से राय लेने लगा है, एसएमएस करवाने लगा है, सोशल नेटवर्किंग साइट पर मित्रों से, अपने पंखों (fans)से पूछने लगा है, राह मे चलते लोगों को पकड़ के पूछने लगा है कि, भाईसाहब, सड़क क्रॉस करूँ कि नहीं....हद है बाइ गॉड!! छींकना है तो पूछना है, खाँसना है तो पूछना है...अब तो लगता है....खुदा वो दिन ना दिखा दे कि, लोग, ये भी ना पूछते हुए मिल जाएँ, कि ज़िंदा रहना है या नहीं”।  

भई अब तक तो हमने ये ही सुना था कि, “सुनो सबकी, करो मन की”....लेकिन शायद अब सिनारिओ बादल चुका है...अब हर काम पूछ के करना है। ठीक भी है....काम गलत हुआ तो ठीकरा फोड़ने के लिए कोई सर तो चाहिए ना ;) और गर खुदा-ना-खासते सही हो गया तो वाह-वाही लूटने का मौका मिल जाएगा और लोगों के बीच फ़ेमस हो जाएंगे सो अलग :D

इसलिए भाइयों और बहनों, डरने वाली कोई बात नहीं....इस बीमारी से आपके पांचों उंगली घी मे और सर कढ़ाई मे। और फिर ऐसा मौका कोई हाथ से (मेरा मतलब आप समझ रहे होंगे) जाने थोड़े ही देता है। ये एक सेलेब्रिटी स्टाइल quotient भी बन गया है....इस बीमारी से लोग आम से खास हो जा रहे हैं। 

पर हम तो कहते हैं भईया...खास बनाने पर अनार हो जाएगा...इतनी बीमारियाँ हैं, एक अनार से कितनों का इलाज हो पाएगा। इसलिए...आम को आम रहने दो, थोड़ा और पकने दो...एक पेड़ से कई और पेड़ बनेंगे...बउर फरेगा....हजारों लाखों की संख्या मे नए आम आएंगे...पके हुए, मंजे हुए...फिर कर देंगे वो हर बीमारी का इलाज। फिर उनके लिए हर चुनौती तीन पत्ती का खेल हो जाएगा, कोई इम्तिहान नहीं, जिसके रिज़ल्ट का हर किसी को इंतज़ार रहे। अभी की तरह नहीं...जहां, हर कोई औना-पौना, अदना-सा, बिना अलिफ बे पे ते पढे....नए बुहार को, अपना पास-फ़ेल का सर्टिफिकेट देने के लिए तैयार है। 

मार्क कीजिये अगर मैं कहीं गलत हूँ....बताइये सही हूँ कि नहीं?? अरे राम रे!! सब को इस बीमारी के बारे मे बताते लग रहा है मुझे भी इन्फ़ैकशन हो गया...भाई, बड़ा contagious है ये रोग...पुछेरिया ;)