Thursday, March 19, 2015

वहां तक आज़ाद हूँ जहाँ तक ज़ंजीर है !!


प्रिय दोस्तों,
नमस्कार...आज बड़े दिनों के बाद फिर से इस ब्लॉग पर चहल कदमी करना शुरू किया है। पढ़िये स्त्री-विमर्श पर मेरा नया आर्टिक्ल। आप नीचे दिये गए लिंक पर जा कर पढ़ सकते हैं और नहीं तो Unedited वर्शन मैं पोस्ट कर रही हूँ...उसको भी पढ़ सकते हैं।

http://www.liveindiahindi.com/renu-mishra-article-on-women


सदियों से चले आ रहे स्त्री-विमर्श से जुड़े कई प्रश्न कि 'स्त्री मुक्ति क्या है? उन्हें अधिकार क्यों नहीं पता या वो अपने हक़ से वंचित क्यों है? क्या संभावनाएं तलाश रही हैं स्त्रियां अपने अस्तित्व की स्वीकार्यता के लिए? सोच में, समझ में, विचारों में कितनी स्वतंत्र हैं कितनी परतंत्र इसका भान भी कैसे हो?', आज भी मुंह बाए वैसे ही खड़े हैं जैसे पहले थे। सवाल उठाने वाली स्त्रियां बदल गयी हैं लेकिन जवाब देने वाली पितृसत्तात्मक सोच आज भी यूँही उनके आज़ादी के विचार पर नाग की तरह कुंडली मार कर बैठी हुई है।

इस पर यह कहना कि आज की लड़कियां/स्त्रियां स्वतंत्रता का मूल्य नहीं समझती, वो स्वछंद हो चुकी हैं तो मैं ये बताने में बिलकुल भी गुरेज़ नहीं करुँगी कि पहले पता तो लगने दो, स्वंतंत्रता के बारे में, उन्हें आईडिया भी तो लगे कि उनका अस्तित्व भी है और उनकी भी समाज में उतनी ही हिस्सेदारी है जितनी पुरुषों की। उन्हें इसका भान तो पहले हो फिर उनकी स्वतंत्रता- स्वछँदता की सीमा रेखा तय की जा सकती है और उनके अधिकारों के विषय में बात हो सकती है क्योंकि  अभी तो उन्हें इसी बात का आभास नहीं है कि वो किन सोचों में बंधी हुई हैं या यूँ कह लीजिये परतंत्र भी हैं। अभी वो पुरुषवादी सोच के चट्टान के नीचे दबी हुई हैं लेकिन उफ्फ्फ करना नहीं जानती। वो भीख में मिले कुछ अधिकारों और सम्मान से ही खुश हो जाती हैं। उन्होंने तो अभी बस आज़ादी का स्वप्न भर देखा है, आज़ाद ख्याल की फरमाइश तो अभी भी नहीं कर सकती। गीतकार पीयूष मिश्रा की ग़ज़ल का एक शेर जो औरत की आज़ादी के सन्दर्भ में कोरी सच्चाई बयां करता है-

“हसरते आज़ादी की ये अच्छी ताबीर है
वहां तक आज़ाद हूँ जहाँ तक ज़ंजीर है!!”

खयालों के पंख तो अभी फड़फड़ा ही नहीं पाये तो स्त्री स्वतंत्रता को स्वच्छदंता का जामा कैसे पहनाया जा सकता है? आज भी कार्यस्थल से लेकर घर तक, स्त्री पुरुष से अधिक काम करती है। घर परिवार से लेकर बच्चों तक को सम्भालने की जिम्मेदारी उन्ही के ऊपर होती है लेकिन फिर भी अगर ज़रा भी मुंह खोल कर अपने हक़ की बात कर ले तो उन्हें परिवार विरोधी मान लिया जाता है। उन्हें अपने हक़ के लिए मुकदमा लड़ना पड़ता है। कहा जाता है ससुराल स्त्री का अपना घर होता है। वहीँ उन की डोली उतरती है और वही से अर्थी तो क्यों नहीं ब्याह के साथ ही पति के घर में उसके नाम संपत्ति कर दी जाती है। क्यों उसे किसी और की दया पर जीने के लिए मजबूर किया जाता है। आज भी सुहाग उजड़ जाने पर उस पर अभागिन होने का विशेषण चस्पा दिया जाता है। ऐसे विशेषण हम पुरुषों के लिए क्यों नही अपनाते? क्योंकि ऐसा हमें सिखाया ही नहीं जाता। हमारे ऊपर अच्छी लड़की, सुशील पत्नी, सुलक्षणा माँ-बहन का या फिर भले घर की स्त्री का तमगा जो लगा दिया जाता है। बचपन से दादी- नानी, माँ- मौसी सबको गलत के लिए चुप रहना और हर बात पर हाँ में सर हिलाते रहने की जो परंपरा देखी है और उसके बाद उनको अच्छा घोषित कर जो महान होने का मैडल पहनाया जाते देखा है, बस उसी मैडल की आकांक्षा में हम अभी भी जुबान पर ताला लगाये बैठे हैं। सामाजिक व्यवस्था गाँव की हो, कसबे की या शहर की हो, पुरुष सत्तात्मक्ता हमारे रग रग में व्याप्त है। पुरुष का कोई भी रूप हो उनपर हावी पुरुषवादी सोच ही रहती है। पच्चीस प्रतिशत पढ़े लिखे या कहा जाए संवेदनशील पुरुषों को छोड़ दिया जाए तो बाकि पुरुषों की मानसिकता निम्न स्तर की ही होती है जिसमे स्त्रियों को 'माल' की निगाह से देखने से भी गुरेज़ नहीं किया जाता। हमारे समाज में बलात्कार, खाप, हॉनर किलिंग जैसी प्रवृतियां, इन्ही घटिया मानसिकता और नारकीय सोच की उपज है जहाँ स्त्रियों को वस्तु की तरह ट्रीट किया जाता है। उनके इनकार को पुरुष अपने अहम् से जोड़ लेते हैंउन पर दकियानूसी सोच हावी हो जाती है कि आखिर एक तुच्छ औरत कैसे अपनी जुबान खोल कुछ बोल सकती है या उसे मना कर सकती है। बस यहीं शुरू हो जाता है स्त्रियों को विलुप्त प्रजाति बनाने का खेल। 

यह पुरुषवादी सोच का ही नतीजा है आज अगर बेड़ियों को तोड़ने की बात या आज़ाद होने की बात की जाती है तो स्त्रियों पर परिवार तोड़ने या अराजकता फ़ैलाने जैसे आरोपों को मढ़ दिया जाता है। लेकिन यहाँ सोच का दूसरा नज़रिया इख्तियार करना होगा। हर पुरुषवादी सोच को ये मानना होगा कि स्त्री सम्बन्धों से मुक्ति नहीं बल्कि सम्बन्धों मे मुक्ति चाहती है। उसे भी स्पेस कि दरकार है। पुरुष को अपने सोच कि उंगली पकड़ा कर उसे अपने इशारे पर चलाने कि कवायद बंद करनी होगी। ये सोचना कि पुरुषवादी सोच के चश्मे से ही सब सच और सही दिखता है सरासर गलत होगा। उसे भी घर के छोटे मुद्दों से लेकर घर के बड़े मुद्दों तक अपना निर्णय लेने कि स्वतन्त्रता होनी चाहिए। उसे कमतर ना आँकते हुए उस पर विश्वास और भरोसा करने कि ज़रूरत है। हम स्त्रियाँ, परिवार को तोड़ कर तो कुछ करने के पक्ष में है ही नहीं लेकिन प्रश्न यह उठता है कि हमेशा बलिदान की जिम्मेदारी स्त्रियां ही क्यों निभाएं? क्यों स्त्रियाँ ही जग जीतने से पहले घर जीतने कि बात करें? क्यो स्त्रियाँ ही पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो का राग आलाप पुरुषवादी अहम को शांत करें? इन ही क्यों मे ही इन का उत्तर भी छिपा है। क्योंकि जो एक बार सामंत बन जाता है वो इतनी जल्दी राजगद्दी नहीं छोड़ सकता। उसे अपनी विरदावली सुनने कि आदत पड़ चुकी होती है। मेरा मानना है कि चाहे कोई भी सत्ता हो जब तक कि सत्ता ना छोड़ने लोभ जड़ों में जमा रहेगा तब तक किसी का कुछ भी भला होने वाला नहीं। मानसिकता को और सोच को बदलने की ज़रुरत है। मर्द या औरत को नहीं। सत्ता हाथ से निकलने के भय से मर्द तो केवल उस सोच का प्रतिनिधित्व करता है। रही बात ज़िम्मेदारी कौन निभाए और कितनी निभाए, ही तो सारे फसाद की जड़ हैहम सामने वाले को दुख मे देख ही नहीं सकते। अपने हक़ के लिए भले ही आवाज़ ना निकाल पाये लेकिन दूसरों को समझाने की बात तो कभी सीखी ही नहीं। अनंत युगों से बलिदानी का पाठ पढ़ कर जो आए हैं। खून में बह रहा है ना चाकरी करना। वही देखा है अपनी माँ दादी को करते। रिक्वेस्ट नाम के शब्द कहाँ होते थे उनकी डिक्शनरी में। रिक्वेस्ट तो वो करती थी। चलिए ना जी खाना खा लीजिये, आप रहने दीजिये मैं फलाना फलाना सब काम कर लूँगी। शक्ति-स्वरूपा बनने ही लालसा रहती है हममे वरना पुरुषों को स्त्रियों से कहाँ कोई अपेक्षा है? ऐसा इसलिए है क्योंकि जैसी बचपन से हमारी कंडिशनिंग होती आई है बस उसी खांचे मे हम सोचते हैं। उसके इतर सोचने के लिए ना तो स्त्री हिम्मत दिखा पाती है और ना पुरुष उस अलग सोच को बर्दाश्त कर पाता है। नतीजा घर तोड़ने का, अराजकता फैलाने का आरोप स्त्रियॉं के सिर आ जाता है।  

इन्ही आरोपों प्रत्यारोपों से सांकल मे जकड़कर स्त्री-मुक्ति का मुद्दा जहां था वहीं का वहीं रह जाता है। हरेक स्त्री को स्त्री-विमर्श की वांछाओ को समझना होगा। सबका साथ सबका विकास जैसे सोच को समग्रता से अपने और अन्य स्त्रियों के भीतर पनपाना होगा। कोई बदलाव तब तक संभव नहीं जब तक कि खुद स्त्रियाँ दूसरी स्त्री को समझने का प्रयास नहीं करेगी। बस खांचे मे फिर रह कर खुश रहने मे कोई बदलाव संभव नहीं। हरेक स्त्री के दर्द को अपना दर्द मानना पड़ेगा तभी हरेक स्त्री खुश हो पाएगी। उन्हे महान होने के सर्टिफिकेट से कन्नी काटनी होगी। एक सामान्य स्त्री बनकर ही हर स्त्री का दुख समझ पाएंगे। दूसरी बात अपनी अस्मिता को पहचानना होगा। किसी भी गलत के इंकार या ना बोलने की परिपाटी चालू करनी पड़ेगी। हो सकता है एक-दो बार पुरुष मन को चोट लगे लेकिन बिना नकार के कोई बदलाव संभव नहीं। तीसरी बात, या समझना होगा कि बदलाव का बयार कोई बाहरी नहीं लाने वाला। इसकी शुरुआत हमे अपने घर से ही करनी होगी। अपनी बेटियों को हम इसलिए ना पढ़ाएँ कि उनकी अच्छे घर मे शादी हो सके, बल्कि इसलिए पढ़ाएँ जिससे वो अपने मे सक्षम हो सकें। वो आर्थिक दृष्टि से किसी पर भी आश्रित ना रहें और मानसिक आधार पर इतनी मजबूत रहे कि कोई दबाव मे लेकर कोई काम ना करा सके। वो अपने निर्णय स्वयं ले सके और हम उनकी आधारशिला बन उनको डगमगाने से बचाएं। अपने बेटों मे स्त्रियों के प्रति संवेदनशील होने का बीज बोना होगा। जिस दिन घर के कामों मे दोनों बराबर की हिस्सेदारी निभाने की प्रक्रिया समझ जाएंगे उस दिन से स्त्री-उत्थान का नया इतिहास शुरू हो जाएगा। लेकिन सभी की शुरुआत केवल और केवल घर से शुरू होगी। अब सोच को बदलने का समय आ गया है। जिस तरह आग की एक चिंगारी ने विकास के नए पहिये आविष्कार किया था उसी प्रकार जिगर मे लगे इस आग से स्त्रियाँ भी बदलाव की नयी क्रांति लाएँगी। मुक्ति का नए मार्ग तलाश पाएँगी। बस ज़रूरत है तो सोच बदलने की। एक स्त्री को दूसरी स्त्री की सखी बनने की। और इस आग को यूंही हवा देते रहने की।

(रेणु मिश्रा)
अनपरा, सोनभद्र
ईमेल- remi.mishra@gmail.com    





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